Call Us: 0141-2570428-31

Tribute

स्व. राजमल सुराना
जन्म : 1907   प्रयाण : 1976
सुराना परिवार का जयपुर में आगमन का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना पुराना इस शहर की स्थापना का। जब महाराजा जयसिंह ने जयपुर नगर की स्थापना कर भारत के हर क्षेत्र से कलावंतों, हुनरमंदों और शिल्पियों आदि को बुलाकर यहां बसाना शुरू किया तो सुराना परिवार को भी रत्न पारखियों के रूप में दिल्ली से यहां लाकर बसाया गया। इसी रत्न विशेषज्ञ परिवार में राजमल सुराना का जन्म हुआ।
राजमल सुराना को रत्न परीक्षण विद्या विरासत में मिली वहीं उन्हें परिवार के परिष्कृत संस्कारों की थाती भी मिली। यही कारण था कि एक ओर जहां वे निष्णात रत्न पारखी थे वहीं निष्ठावान परमार्थी भी थे। जागतिक सत्य को पहचान कर उन्होंने श्रेष्ठ रत्न पारखी के रूप में अपनी पहचान बनाई वहीं जयपुर में भूरामल राजमल सुराना नाम से प्रतिष्ठान स्थापित किया। गत पांच दशकों में एक समय ऐसा भी आया जब कुंदन और मीनाकारी की कद्र कम होने लगी। मीना जडित आभूषणों को गलाया जाने लगा और यह कला मृतप्राय हो गयी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने अपने भगीरथी प्रयासों से पुरातन में अधुनातन के समावेश से इस कला को पुनर्जीवित किया। कुंदन एवं मीना जडित आभूषणों को कलात्मक बनाकर उनमें आकर्षण उत्पन्न किया। इस कला को विस्तार देने के लिए उन्होंने अपने पुत्रों को विदेश भेजा वहीं देश-विदेश में आयोजित प्रदर्शनियों में इस कला को प्रदर्शित कर जयपुर के रत्नाभूषणों को लोकप्रिय बनाया। सन् 1962 में न्यूयार्क में लगी विश्व व्यापार प्रदर्शनी में भी सुराना परिवार ने भाग लिया और उसमें कलात्मक आभूषणों का प्रदर्शन किया। उनके इन समन्वित प्रयासों से इस कला को एक नई दिशा मिली वहीं इस कला से जुडे जयपुर के कारीगरों को रोजगार भी मिला। उनमें से कुछ कारीगर तो राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत भी हुए। आज जयपुर में सैकडों परिवार इस कला से जुडे हुए हैं।
राजघराने के उत्सवों में उन्हें ससम्मान निमंत्रित किया जाता था वहीं प्रशासकीय मामलों में भी उनसे परामर्श लिया जाता था। यही कारण था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब जयपुर में शक्कर, केरोसिन तेल जैसी आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया तो महाराजा मानसिंह द्वितीय ने उन्हें बुलाया और उनसे विचार-विमर्श के बाद उनकी अध्यक्षता में एक समिति गठित कर जयपुर में उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सौंपी।
उनकी कार्य दक्षता का ही परिणाम था कि उस दौरान जयपुर में आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं रहा और जनता को उचित मूल्य पर आवश्यकतानुरूप वस्तुएं सुलभ हुर्इं। वे विधायक और आनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे। उन्होंने जीवन मूल्यों के साथ अपने व्यवसाय की कीर्ति पताका फहराई वहीं शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठापना भी की। इतना ही नहीं वे हर पल कुछ नया और अनूठा करने की तमन्ना रखते थे। यही कारण था कि उन्होंने जयपुर में एक ऐसा सिनेमाघर बनाने का काम शुरू किया जो अपने आप में अद्वितीय हो। अंतत: 4 जनवरी, 1976 को वे ब्रह्मलीन हो गये। वे अपने समय की महान शख्सियत थे। उनके विराट् व्यक्तित्व की स्मृति को चिरस्मरणीय बनाए रखने के लिए उनके परिवार द्वारा बनाए गए छविगृह का नाम उनके नाम पर ही राजमंदिर रखा गया जो एशिया के श्रेष्ठ सिनेमाघरों में एक है। संगीत के प्रति उनकी रुचि को देखते हुए उनके परिवार ने उनकी पुण्य तिथि पर संगीतांजलि देने का निर्णय लिया और उनकी स्मृति में आयोजित यह संगीत समारोह देश के प्रतिष्ठित संगीत समारोहों में एक बन गया। प्रति वर्ष आयोजित होने वाले इस समारोह में देश के मूर्धन्य कलाकार अपनी संगीतांजलि अर्पित करते हैं। हम उस पुण्यात्मा को सश्रद्ध नमन करते हैं, स्मरण करते हैं और शत-शत वन्दन करते हैं।
प्रकाश चन्द सुराना
जन्म : 8 फरवरी, 1939   प्रयाण : 4 फरवरी, 2015

रत्न-सुर पारखी ही नहीं इनके प्रकाश भी थे

महाराजा जयसिंह ने जब जयपुर शहर की स्थापना की तो विभिन्न कलाओं के गुणी एवं ख्यातनाम लोगों को भी बाहर से बुलवा कर यहां बसाया गया। इसी शृंखला में रत्नपारखी एवं रत्नाभूषण विशेषज्ञ परिवार के रूप में सुराना परिवार को दिल्ली से लाकर यहां बसाया गया। इस दृष्टि से यह परिवार जयपुर की तीन सदी की विकास यात्रा का साक्षी रहा है। जयपुर की ज्वैलरी को नया आयाम देने वाले इसी परिवार मेें 8 फरवरी, 1939 को प्रकाश सुराना का जन्म हुआ। सन् 1955 में जयपुर के सेंट जेवियर हाई स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज और सन् 1959 में महाराजा कॉलेज से बी.एससी. कर वे अपने पारम्परिक रत्न व्यवसाय से जुड गये।
लौटी ज्वैलरी की जगमग

पिता राजमल सुराना के सान्निध्य में रहकर उन्होंने रत्न परीक्षण एवं रत्नजडित आभूषण कला की बारीकियां सीखीं। जयपुर के ज्वैलरी व्यवसाय में एक समय ऐसा भी आया जब कुन्दन और मीनाकारी की कद्र कम होने से मीना जडित आभूषणों को गलाया जाने लगा और जयपुर की पहचान बनी यह कला
मृतप्राय हो गयी। ऐसी विषय स्थिति में प्रकाश सुराना ने अपनी कल्पनाशीलता, सूझबूझ और अप्रतिम सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय देकर रत्नाभूषणों के पुरातन स्वरूप में युगीन परिवर्तन कर उन्हें आकर्षक एवं कलात्मक रूप प्रदान किया। इससे यह मृतप्राय कला लोकप्रियता की संजीवनी पाकर न केवल पुनर्जीवित हुई, धूमिल छवि नये रूप में जगमग हुई बल्कि उसकी इस जगमगाहट को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति मिली। इनके द्वारा परिकल्पित नूतन डिजाइनों वाली ज्वैलरी ने देश-विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान तो बनाई ही, रत्न व्यवसाय को भी एक नई दिशा मिली। अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय आभूषण प्रदर्शनियों में इनके कलात्मक डिजाइनों वाले आभूषण सराहे गये।

सुरों से लगाव

संगीत के संस्कार इन्हें विरासत में मिले। इनके पिता राजमल सुराना नियमित रूप से दो घंटे ईश आराधना में व्यतीत करते थे। जिन भजनों में जीव-जगत, ब्रह्म तथा अध्यात्म के गूढ रहस्य छिपे हुए होते थे, वे उन्हें बहुत भाते थे। जो भजन हृदय ग्राह्य होने के साथ-साथ गेय होते थे, उन्हें गुनगुनाकर उच्च जीवनादर्शों पर चलते रहने की आत्मिक शक्ति प्राप्त करते थे तथा यथा समय फनकारों को बुलाकर उनके फन को सम्मानित करते थे। उनके परिष्कृत संस्कारों की यह थाती इन्हें विरासत में मिली। प्रकाश चन्द सुराना ने यथा नाम तथा गुण के अनुरूप रत्नाभूषणों की आभा में तो वृद्धि की ही साथ ही प्रतिष्ठित संगीत सुरों की प्रभा से कला रसिकों को भी आलोकित-आह्लादित किया। प्रतिष्ठित सुरों से गहरा आत्मीय रिश्ता कायम करने के अलावा उन्होंने उदीयमान स्वरों को प्रकाशमान करने में भी अपना अतुलनीय योगदान किया।

नवाचारों के प्रणेता

प्रकाश चन्द सुराना ने जिस प्रकार रत्नाभूषणों के पुरातन स्वरूप में अधुनातन का समावेश कर उन्हें लोकप्रियता की संजीवनी प्रदान की ठीक उसी तरह रूढ परम्पराओं की कारा को तोडकर नये प्रतिमान भी स्थापित किये। उदाहरण के लिए उन्होंने अपने पुत्र के विवाह में निकासी के अवसर पर पारम्परिक बैण्डवादन के स्थान पर पंडित जगन्नाथ का शहनाई वादन और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकारों का पैदल चलकर निकासी में शरीक होना एक ऐसा नवाचार था जो जयपुर वासियों के लिए अनूठा अहसास था। जयपुर की वैवाहिक परम्परा के इतिहास में लीक से हटकर एक ऐसा अविस्मरणीय अध्याय जु‹डा जो हर संगीत प्रेमी के अलावा मांगलिक परम्पराओं की पुन: प्रतिष्ठापना के संदर्भ में भी अनुकरणीय है। सुराना परिवार के वैवाहिक कार्यक्रमों में जहां उस्ताद बिस्मिल्लाह खां और पंडित जगन्नाथ जैसे दिग्गजों की शहनाई से मंगल ध्वनि निकली वहीं श्रीमती गिरिजा देवी के बधावा, पंडित भीमसेन जोशी एवं पंडित जसराज जैसे स्वर सिद्धों ने अपनी गायकी का अमृत बरसाया है। डागर बन्धुओं ने नाद ब्रह्म से साक्षात कराया तो पं. वी.जी. जोग, उ. अमजद अली खां और पं. हरिप्रसाद चौरसिया जैसे स्वर संतों ने अपने वाद्यों के स्वर-माधुर्य की मोहिनी से संगीत रसिकों को आकंठ रसाप्लावित किया है।

स्वर का सम्मान

प्रकाश चन्द सुराना संगीत का प्रचार-प्रसार और उसका संरक्षण-संवर्धन करना तो अपना परम कर्तव्य मानते ही थे, संगीत विभूतियों का समुचित सत्कार कर उन्हें सम्मान देने में भी सदैव अग्रणी रहते थे। उनके इस आत्मीय सम्मान-सत्कार से अभिभूत होकर ही अधिकांश कलाकार प्राय: उनके घर ही ठहरना पसंद करते थे। फिर चाहे भोजन की मान-मनुहार हो या बच्चों के साथ पतंग उडाने का अवसर, वे उसमें शरीर होकर सम्पूर्ण वातावरण को हर्षोल्लास से सराबोर कर देते थे। उन्होंने संगीत विभूतियों के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा तथा उनकी संगीत साधना को सम्मान देने की दृष्टि से अपने पिता की स्मृति में राजमल सुराना स्मृति समारोह की शुरुआत की। गत चार दशकों से निरन्तर आयोजित होता आ रहा यह समारोह राष्ट्रीय स्तर पर संगीत का प्रतिष्ठित समारोह बन गया है। इतना ही नहीं स्वरों को सम्मानित करने हेतु उन्होंने वर्ष 2001 से देश की शीर्ष संगीत विभूतियों को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू किया जो आज तक जारी है। अब तक पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, विदुषी गिरिजा देवी, विदुषी किशोरी अमोणकर, पं. राजन-साजन मिश्र, पं.अजय चक्रवर्ती, बेगम परवीन सुलताना,प.छन्नूलाल मिश्र, उ. राशिद खां, उ. अब्दुल रशीद खां, पं. रविशंकर, पं. शिवकुमार शर्मा, पं. हरिप्रसाद चौरसिया, उ. अमजद अली खां और पं. रामनारायण को सम्मानित किया जा चुका है। सम्मान स्वरूप उन्हें शॉल, श्रीफल, श्रुति मण्डल का रजत प्रतीक चिह्न और 51 हजार रुपये की राशि प्रदान की गई। यह राशि गत वर्षों से बढाकर एक लाख रुपये कर दी गई है। उन्होंने शहनाई के संत स्व. बिस्मिल्लाह खां की रुग्णावस्था में 51 हजार रुपये की राशि सहायतार्थ भिजवाई और बहिन की तरह समादृत विदुषी गिरिजा देवी के जन्मदिन पर, जब वे श्रुति मण्डल के कार्यक्रम के संदर्भ में जयपुर आई हुई थीं, तो उन्हें स्वर्ण आभूषण तक भेंट कर स्वरों के प्रति अपनी कृतज्ञता जताई।

विनम्रता के प्रतीक

प्रकाश चन्द सुराना ‘मैं’ के अहंकार और धन के मद से कोसों दूर रहे। स्वयं के व्यय से आयोजित बडे संगीत कार्यक्रमों में आगे की पंक्तियों में संगीत रसिकों को बिठाते रहना और बिना महत्त्व जताये स्वयं कहीं किसी कोने में पीछे बैठ जाना तथा जगह न मिलने पर सभागार के फर्श पर ही बैठकर पूरे कार्यक्रम को देखना-सुनना संगीत के प्रति उनके समर्पण और निरभिमानी होने का ही परिचायक था। कार्यक्रम से पूर्व हाथ जो‹डे रहकर आगन्तुकों का स्वागत करना तथा कार्यक्रम समाप्ति पर कार्यक्रम में आने वाले का आभार व्यक्त करना उनके स्वभाव में था। सचमुच में वे एक चुम्बकीय प्रभा मण्डल से युक्त सौम्य, सरल-तरल और संवेदनशील-संस्कारित व्यक्ति थे जो पीडित की पीडा से उद्वेलित और उल्लास से उल्लसित हो जाते थे। इस शिष्ट-मिष्ट और विनम्र व्यक्ति के जो कोई भी सम्पर्क में आया उनके आत्मीय सद्व्यवहार से उन्हीं का होकर रह गया।

संगीत का सुराना घराना

संगीत के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित प्रकाश सुराना एक व्यक्ति नहीं स्वयं में एक संस्था के साथ-साथ संगीत का एक घराना थे। राज्याश्रयी परम्परा में तो संगीत का एक ही घराना होता था किन्तु उन्होंने सभी घरानों के कलाकारों के संगीत को संरक्षण प्रदान किया। संगीत जगत के लब्ध प्रतिष्ठित कलाकारों को बुलवाकर कला रसिकों को सुनने-देखने का अवसर उपलब्ध कराने के अलावा उदीयमान स्वर नक्षत्रों को श्रुति मण्डल का आकाश प्रदान कर उन्हें प्रदीप्त होने का अवसर प्रदान किया। उन्होंने जयपुर से बाहर के युवा कलाकारों को श्रुति मण्डल के कार्यक्रमों में बुलवाया वहीं स्थानीय उदीयमान स्वर प्रतिभाओं को भी अपने फन का जौहर दिखाने का समुचित अवसर प्रदान किया। आज अनेक ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने श्रुति मण्डल के प्रतिष्ठित मंच पर पहली बार अपनी कला का प्रदर्शन किया और आज देश के शीर्ष कलाकारों की श्रेणी में स्थापित हैं। इसके अलावा देश के मूर्धन्य कलाकारों में भी कोई ऐसा कलाकार नहीं है जिसने श्रुति मण्डल के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लिया हो।
वस्तुस्थिति तो यह है कि आज देश के चोटी के कलाकार राजमल सुराना स्मृति समारोह में भाग लेने को लालायित रहते हैं। इतना ही नहीं उन्होंने संगीत प्रतिभाओं को छात्रवृत्ति तथा अन्य संस्थाओं को आर्थिक सहयोग प्रदान करके भी अपनी संगीत सदाशयता का परिचय दिया। गायन, वादन, नर्तन सभी विधाओं के कलाकारों को बुलवाकर उन्हें न केवल अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर प्रदान किया अपितु संगीत का व्यापक फलक भी उन्हें प्रदान किया। इस दृष्टि से यदि उन्हें संगीत के सभी घरानों एवं विधाओं को संरक्षण देने वाले ‘सुराना घरानाङ्क का जनक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

श्रुति मण्डल के पर्याय

संगीत में श्रुतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। जिस प्रकार श्रुतियों के बिना संगीत की कल्पना नहीं की जा सकती ठीक उसी प्रकार बिना उनके श्रुति मण्डल के अस्तित्व की भी कल्पना नहीं की जा सकती। श्रुति मण्डल की स्थापना से ही वे उसके मूलाधार बने। श्रुति मण्डल के अपने नगण्य आर्थिक संसाधनों के कारण उन्हें ही सम्बल प्रदान करने की पहल करनी होती थी। फिर चाहे बैले समारोह हो या बिस्मिल्लाह खां को समर्पित समारोह, राजमल सुराना स्मृति समारोह एवं स्मृति सम्मान समारोह हो या वर्ष भर चलने वाले अन्य कार्यक्रम, उन्हें ही अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना होता था। उन्होंने वर्ष भर के कार्यक्रमों की परिकल्पना की और उन्हें क्रियान्वित किया। वे आजीवन श्रुति मण्डल के अध्यक्ष रहे और संगीत के प्रति समर्पण भाव से कार्य करते हुए उसके पर्याय बन गये।

सच्चे कर्मयोगी

वे जीवन पर्यन्त अपने कर्म पथ पर अग्रसर रहे। कर्म के प्रति उनकी निष्ठा का इससे बढकर और क्या उदाहरण हो सकता है कि अस्वस्थता के दिनों में भी वे अपनी कर्मस्थली (शोरूम) पर नियमित रूप से आते थे। यहां तक कि अनन्त पथ पर प्रयाण करने से कुछ क्षण पूर्व भी वे शोरूम पर दैनंदिन कार्य को सम्पादित कर रहे थे।

मान-सम्मान

आगे बढकर सभी को सम्मान देने तथा जीवन मूल्यों के प्रति आस्था का यह प्रभापुंज जहां भी गया, वहां ये श्रद्धास्पद बन गये। लोगों ने इनके प्रति आदर प्रकट किया, अनेक संस्थाओं ने इन्हें सम्मानित किया और स्वर-साधकों ने इन्हें अपने हृदय में स्थान दिया। इन्हें महाराणा मेवाड फाउंडेशन का डागर घराना अवार्ड से सम्मानित किया गया वहीं जयपुर के सिटी पैलेस में पूर्व महाराजा भवानी qसह ने इन्हें सवाई भवानी सिंह अवार्ड से विभूषित किया।

जयपुर के पूर्व महाराजा भवानी सिंह से सम्मान प्राप्त करते हुए
पुत्र प्राचीर सुराना को गीता में निहित कर्मसूत्र के गूढ रहस्य को समझाते हुए
श्रेष्ठ घुडसवार

प्रकाश चन्द सुराना संगीत को समर्पित एवं रत्न पारखी तो थे ही एक अच्छे घुडसवार भी थे। इनके अपने घोडे थे और संभवतया एकमात्र ऐसे सिविलियन थे जिन्हें इकसठवीं कैवेलरी में घुडसवारी करने की इजाजत मिली हुई थी। घुडसवारी की वेशभूषा में प्रात: घोडे पर सवार होकर जब उसे एड लगाकर दौडाते हुए हवा से बातें करते थे तो यकीन ही नहीं होता था कि वे संगीत के कोमल स्वरों का अमृतपान करने वाले प्रकाश जी हैं। उस समय तो केवल कुशल घुडसवार होते थे। घुडसवारी के साथ-साथ योग करना भी उनकी दिनचर्या में शामिल था। और अंत में…. आजीवन सुरों की सलिला में गोते लगाते हुए, श्रुतियों के स्वरों से मिले हुए (सुर+आना = सुराना अर्थात् सुरों से मिले हुए), रत्न पारखी, कुशल व्यवसायी, सुरों का सम्मान करने वाला, अनेक सम्मानों से विभूषित, संगीत प्रेमियों के हृदय में बसने वाला, संगीत के सुरों में रमण करने वाला, गीता के कर्तव्य सूत्र को अनुकरण करते हुए, कर्मरथ पर सवार होकर यह कर्मनिष्ठ सुर श्रुतियों के स्वर को अन्तकरण में समाहित कर, सुरों का यह प्रकाश अनन्त सुर की प्रभापुंज में लीन हो गया। 4 फरवरी, 2015 में अपना पार्थिव शरीर एवं लौकिक स्वरूप छो‹डकर वे सदा के लिए अपार्थिव एवं अलौकिक हो गये।
दहकते चन्दन काष्ठ से निकली ऊध्र्वगामी ज्वालाओं से परिवेष्टित पार्थिव देह से निकली उनकी स्वरात्मा जैनशास्त्र-मंत्रोचार की स्वर लहरियों पर सवार होकर नादब्रह्म के प्रशस्त मार्ग पर प्रयाण कर गई। यह भी एक नवाचार ही था कि मोक्षधाम पर प्रायः शोकाकुल परिवार अग्नि संस्कार सम्पन्न करता है किन्तु उन्हें मंत्र-संगीत के साथ अग्नि से संस्कारित किया गया। अपार जन समूह ने उस दिव्यात्मा को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।

अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ
लेडी डायना के साथ
शोरूम पर जयपुर के पूर्व महाराजा श्री भवानीसिंह शाही मेहमान के साथ
तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के साथ